कुछ दूर चले थे साथ में, आज दूर हो गए ...
ना जाने कब हम अपनी ज़िंदगी में इतने मशरूफ हो गए ...

कुछ दूर चले थे साथ में, आज दूर हो गए
ना जाने कब हम अपनी ज़िंदगी में इतने मशरूफ हो गए

हम जब भी साथ होते थे, तभी खूब मस्ती होती थी
तब सपने हमारे बहुत मंहगे थे और खुशिया बड़ी सस्ती होती थी
गली के उस छोर पर जब, हम सब खड़े हो जाते थे
कोई जब घर से दौड़ा ना आये, तो उसका नाम गली से ही चिल्लाते थे
जब एक मैच में जीतने वाले की, नए मैच में बैटिंग पहले होती थी
वो भी एक वक़्त था जब दोस्तों के लिए हमारे वक़्त की कीमत टेनिस बॉल से भी सस्ती होती थी
आज जाने फिर कहाँ चिन्टु के वो बैट बॉल खो गए
ईंटों का विकेट तो आज भी वहाँ रखा है बस हम ही दूर हो गए

कुछ दूर चले थे साथ में, आज दूर हो गए
ना जाने कब हम अपनी ज़िंदगी में इतने मशरूफ हो गए

मुझे याद है जब बारिश के पानी की नदीयाँ बहा करती थी 
उन नदीयों के पानी में हमारी कश्ती चला करती थी 
बारिश से हवा में थोड़ी ठंडक और मौसम घनघोर होता था 
बिजली चली जाने से घर में अंदर सन्नाटा, लेकिन गलियों में शोर होता था 
जब बारिश रुक जाने पर हम गलियों में भटका करते थे 
शक्तिमान के किस्से होते और साइकिल चलाया करते थे 
आज जाने क्यों उन गलियो के शहंशाह खो गए 
साइकिल तो वही इंतज़ार करती हैं बस हम ही उनसे दूर हो गए 

कुछ दूर चले थे साथ में, आज दूर हो गए 
ना जाने कब हम अपनी ज़िंदगी में इतने मशरूफ हो गए 


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